Namak Ka Daroga

Namak Ka Daroga – यह बच्चों के पढ़ने के लिए नमक का दरोगा की कहानी है। जब नमक का विभाग नया-नया बना था और विभाग में ऊपरी कमाई बहुत ज्यादा होती थी, तब लोग चोरी-चुपे इसका व्यापार करना लगे। अनेक प्रकारो के छल-प्रपंजो का सूत्रपात हुआ। कोई घूस से काम निकालता, तो कोई चालाकी से। अधिकारियों के पौ बारह थे। पटवारीगिरि का सर्व-सम्मानित पद छोरके लोग इस विभाग में नौकरी पाना चाहते थे। मुंशी वंशीधर भी रोज़गार की खोज में निकले। उनके पिता एक अनुभवी पुरुष थे। समझाने लगे, “बेटा, घर की दुर्दशा देख रहे हो! ऋण के बोझ से दबे हुए हैं। मेरे जीवन का अब कोई भरोसा नहीं, अब तुम ही घर के मालिक-मुख्तार हो। नौकरी में औंधे की ओर ध्यान मत देना, ऐसा काम ढूँढना जहाँ कोई ऊपरी आये हो। तुम स्वयं विद्वान् हो, तुम्हे क्या समझाऊँ!” इस उपदेश के बाद, पिताजी ने आशीर्वाद दिआ। वंशीधर आज्ञाकारी पुत्र थे। उन्होंने पिताजी की बाते ध्यान से सुनी और घर से चल पड़े।

अच्छे शगुन से चले थे, जाते ही वे नमक विभाग के दरोगा पद पर प्रतिष्ठित हो गए। वेतन अच्छा था और ऊपरी आये का तो थिककाना ही न था। पिताजी पुत्र की कामियाबी से बेहद खुश थे। जाड़े के दिन थे, और रात का समय। नमक से सिपाई और चौकीदार नशे में धुत थे। मुंशी वंशीधर को यहाँ आये अभी ६: महीने से अधिक न हुए थे, लेकिन इस थोड़े समय में ही उन्होंने ने कार्य-कुशलता और उत्तम आचरण से अवसरों को मोहित कर लिया था। अवसर लोग उनपर बहुत विश्वास करने लगे।

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नमक के दफ्तर से एक मील पूर्व की ओर जमुना बहती थी। उस पर नावों का एक पुल बना हुआ था। दरोगा जी किवाड़ बंद किये मीठी नींद में सो रहे थे। अचानक आँख खुली तो नदी के प्रवाह की जगह गाड़ियों की गरगराहट तथा मल्लाहो का कोलाहल सुनाई दिआ। तर्क ने भ्रम को पुष्ट किआ। दरोगा ने जल्द ही वर्दी पहनी, तमंचा जेब में रखा और पुल पर आ पहुंचे। उन्होंने गाड़ियों की लम्बी कतार पुल के पार जाती देखी। उनके पूछने पर किसी से जवाब न दिआ, बस सन्नाटा रहा। उन आदमियों में काना-फूसी हुई। उनमे से एक ने कहा, “पंडित अलोपीदीन की!”

पंडित अलोपीदीन इस इलाके के सबसे प्रतिष्ठित जमींदार थे। लाखो रूपयो का लेन -देन करते थे। सब उनको जानते थे। यहाँ तक की उनका व्यापार भी काफी लम्बा-चौड़ा था। वंशीधर ने पूछा, “गाड़िया कहा जायँगी?” उत्तर मिला, “कानपुर! लेकिन इस प्रश्न पर की इसमें क्या है, सन्नाटा चा गया। दरोगा साहिब का संदेह और बड़ा। इतना पूछने के बाद भी जब उन्हें कोई उत्तर न मिला तो उन्होंने अपने घोड़े को एक गाडी से सटाकर बोरे को टटोला और उनका ब्रम्ह दूर हो गया। यह नमक के ढेले थे। पंडित अलोपीदीन अपने सजीले रथ पर सवार चले आ रहे थे।

अचानक कई गाड़ीवाले उनके पास जा कर बोले, “महाराज, दरोगा ने गाड़ी रोक दी है और घाट पे खड़े आपकी राह देख रहे है। पंडित अलोपीदीन का लक्ष्मी जी पर अखंडित विश्वास था। वे कहा करते थे कि संसार का तो कहना ही क्या, स्वर्ग में भी लक्ष्य का ही वास है। पंडित जी काफी निश्चिन्त थे। वे दरोगा के पास जा के बोले, “हमसे ऐसा कौनसा अपराध हो गया की गाड़ियां ही रोक दी गयी?” दरोगा बोले, “सरकारी हुकुम !” अलोपीदीन ने उन्हें रिश्वत देने की कोशिश की मगर वंशीधर एक ईमानदार अफसर थे। बहुत लालच देने के बाद भी वंशीधर नई माने। अलोपीदीन के स्वाभिमान और धन ऐश्वर्य को कड़ी चोट लगी किन्तु धन की शक्ति पर अभी भी भरोसा था। मगर दरोगा साहिब का निर्णय अटल था। धर्म ने धन को पैरो टेल कुचल डाला। अलोपीदीन ने एक हृष्ट-पुष्ट मनुष्य को हथकड़ियां लिए हुए अपनी ओर आते देखा। वे चारो और निराश दृष्टि से देखने लगे। इसके बाद मूर्छित हो कर गिर पड़े।

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जब दूसरे दिन पंडित अलोपीदीन अभ्युक्त होकर कांस्टेबल के साथ हाथो में हथकड़ियांँ , ह्रदय में ग्लानि और शुभ भरे लज्जा से गर्दन झुकाये अदालत की तरफ चले, तब सारे शहर में हलचल मच गयी। सभी लोग विस्मित हो रहे थे। इसलिए नहीं की अलोपीदीन ने क्यों यह कर्म किआ, बल्कि इसलिए कि वे क़ानून के पंजे में कैसे आ गए! बड़ी तत्परता से इस आक्रमण को रोकने के निमिक्त वकीलों की एक सेना तैयार की गयी। न्याय के मैदान में धर्म और धन के बीच युद्ध चिड़ा। वंशीधर चुप चाप खड़े थे। उनके पास सत्य के सिवा न कोई बल था, न स्पष्ट भाषण के अतिरिक्त कोई शास्त्र। गवा तो थे मगर लोभ से डामाडोल। यहाँ तक की मुंशी जी को भी न्याय अपनी ओर से कुछ खींचा हुआ दिखाई पड़ता था।

न्याय के दरबार पर पक्षपात का नशा छाया हुआ था। मुकदमा जल्द ही समाप्त हो गया। डिप्टी मजिस्ट्रेट ने अपने निर्णय पे लिखा,पंडित अलोपीदीन के विरुद्ध दिए गए प्रमाण निर्मूल है। वकीलों ने यह फैसला सुना और उछल पड़े। अलोपीदीन मुस्कुराते हुए बाहर निकले। जब वंशीधर बहार निकले, तो चारो ओर से उनके ऊपर व्यंग्य बाणों की वर्षा होने लगी। आज उन्हें संसार का खेदजनक विचित्र अनुभव हुआ। वंशीधर ने धन से बैर मोल लिया था, उसका मूल्य चुकाना अनिवार्य था।

कठिनाई से एक सप्ताह बिता होगा कि वंशीधर के पास निलंबन नोटिस पंहुचा। कार्य परायणता का दंड मिला। बेचारे टूटे ह्रदय, दुःख और खेद से व्याकुऱ घर को चले। बूढ़े मुंशी जी तो पहले से ही कुड़बुड़ा रहे थे कि जाते जाते इस लड़के को समझाया था, लेकिन इसने एक न सुनी! जब मुंशी वंशीधर घर पहुंचे और बूढ़े मुंशी जी ने समाचार सुना, तोह सिर पीट लिया। बहुत देर तक पचता-पछताकर हाथ मलते रहे। वृद्धा माता को भी दुःख हुआ। पत्नी ने शह कई दिनों तक सीधे मुँह बात ही नहीं की। इसी प्रकार एक और सप्त्यैः बीत गया।

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संध्या का समय था। बूढ़े मुंशी जी राम-नाम की माला जप रहे थे। उसी समय उनके द्वार पर सजा हुआ रथ रुका। मुंशी स्वागत के लिए दौड़े। देखा तो पंडित अलोपीदीन थे। उन्होंने उनका स्वागत किआ और अपने पुत्र के लिए काफी भला-बुरा बोला। लेकिन पंडित अलोपीदीन वंशीधर से बहुत प्रभावित थे।

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पंडित अलोपीदीन ने वंशीधर से कहा, “दरोगा जी, इससे खुशामत न समझे, खुशामत करने के लिए मुझे इतना कष्ट उठाने की ज़रूरत न थी। उस रत को आपने अधिकार बल से मझे हिरासत में लिया था, किन्तु आज में स्वैच्छा से आपकी हिरासत में आया हूँ। मैंने हज़ारो राईस और अमीर देखे,हज़ारो उच्च पदारियों से काम पड़ा,किन्तु मुझे परास्त किआ तो आपने! मैंने सबको अपना और अपने धन का गुलाम बना के छोड़ दिया, मुझे आज्ञा दीजिये में आपसे कुछ विनय करू!” वंशीधर बोले, “यह आपकी उदारता है जो ऐसा कहते हैं, मुझसे जो कुछ भी अविनय हुई है उससे शमा करे। मैं धर्म की बेड़ी में जकड़ा हुआ था, नहीं तो वैसी आपका दास हूँ। आपकी आज्ञा का ज़रूर पालन होगा। ”

अलोपीदीन ने विनीत भाव से कहा, “नदी तट पर आपने मेरी प्राथना स्वीकार नहीं की थी, किन्तु आज स्वीकार करनी पड़ेगी। वंशीधर बोले, “में किस योग्य हूँ? जो सेवा मुझसे हो सकेगी उसमे त्रुटि नहीं होगी। अलोपीदीन ने स्टाम्प लगा हुआ एक पत्र निकाला और उससे वंशीधर के सामने रख कर बोले, “इस पत्र को स्वीकार कीजिये और अपने हस्ताक्षर कर दीजिये। मुंशी वंशीधर ने उस कागज़ को पढ़ा तो कृतज्ञता से आँखों में आंसू भर आये। पंडित अलोपीदीन ने उनको अपनी साड़ी जायदाद का स्थयी मैनेजर नियुक्त किआ था। ६ हज़ार वार्षिक वयतन के अतिरिक्त रोज़ाना हर्जा अलग, सवारी के लिए घोड़ा, रहने के लिए बांग्ला, नौकर-चाकार मुफ्त दिया।

वंशीधर कम्पित स्वर में बोले, “पंडित जी, मुझमे इतनी सामर्त्य नहीं है कि आपकी उदारता की प्रशंसा कर सकू, किन्तु ऐसे उच्च पद के योग्य में नहीं हूँ। अलोपीदीन हँस कर बोले, “मुझे इस समय एक अयोग्य मनुष्य की ही ज़रूरत है। अलोपीदीन ने कलमदान से कलम निकाली और उससे वंशीधर के हाथ में दे कर बोले, “न मुझे विद्धवता की चाह है, न अनुभव की और न ही कार्यकुशलता की! इन गुणों के महत्व का परिचय खूब पा चूका हूँ। अब सौभाग्य से सुअवसर ने मुझे वह मोती दे दिया है जिसके सामने विद्वता और योग्यता की चमक फीकी पड़ जाती है। यह कलम लीजिये, अधिक सोच विचार न कीजिये। दस्तखत कर दीजिये! परमात्मा से एहि प्रार्थना है कि वह आपको सदैव नदी के किनारे वाला उद्दंड, कठोर परन्तु धर्मनिष्ट दरोगा बनाये रखे। वंशीधर की आँखे डबडबा आयी। हृदये के संकुचुत पत्र में इतना एहसान न समां सका। एक बार फिर पंडित जी की ओर भक्ति और श्रद्धा की दृष्टि से देखा और कापते हुए हाथ से पेपर पर हस्ताक्षर कर दिए। अलोपीदीन ने प्रसन्न हो कर उन्हें गले लगा लिया।